Saturday, June 19, 2010

नयनों में कैसा है मंजर....

२६ दिसम्बर,२००४ मानव इतिहास में एक काले दिन के रूप में हमेशा याद किया जाता रहेगा...इस दिन सुनामी ने धरती के हरे-भरे आँचल में मानव के रक्त से होली खेली थी...उस दर्दनाक द्रश्य का वर्णन मेरी लेखनी की शक्ति से बाहर है...ज्वार तो समुद्र में उठा था,पर दर्द मेरे मन में भी उमड़ पड़ा...उसी दर्द ने लेखनी के माध्यम से कोरे कागज़ में कुछ शब्द लिख दिए...

यह कविता नहीं ,वेदना है दिल की.. श्रधांजलि है सुनामी पीड़ितों को..विनय है प्रकृति से....हे प्रकृति! ऐसी चंचलता दिखा...बेटा तो गलती कर सकता है, पर तू तो माँ है...करुना और दया की जीवंत मूर्ति... अगर तू अपने बेटे मानव को माफ़ नहीं करेगी तो कहाँ जायेगा तेरी गोद में खेलने वाला मानव...कहाँ...?अब कभी खंजर(समुद्र ) लिए अपने बेटे मानव की ओर दौड़ना..उसकी सभी गलतियों को माफ़ कर देना...

नयनों
में कैसा है मंजर ,
कुदरत के हाथों में खंजर|

कंपति कम्पित, धरा डोलती,
या जीवन को विष में घोलती ;
प्रकृति कहूँ या सर्प कहूँ,
जो काल के मुहं में ग्रास छोडती;
नयी-नयी आशायें सजोयें,
आँखों ने देखा सूनापन;
चीखता हुआ है हर मंजर,
कुदरत आँचल हाथों में खंजर|


सागर ने अठखेली खेली,
या फिर खून की होली खेली;
धरती के हरियाले आँचल,
पर इसने लाली क्यों बिखेरी;
प्यास बुझाता उसे तिशनगी,
अर्ध लक्ष की वीरानापन;
आंसू ही मानव के अंतर,
कुदरत के हाथों में खंजर|


गुलशन सहरा हुआ निमिख में,
बिस्मिल मानवता जागी पल में,
जिनका मरहूमों से नाता,
सांत्वना मिली आज जगत से;
टूटी छोड़ी, सिन्दूर पुछा,
या फिर आँचल में सूनापन;
देखा अश्क भरी आँखों से,
कुदरत के हाथों में खंजर|

शोखियाँ दिखाए ना प्रकृति अब,
बुझ सके शम्म-- महफ़िल;
नाताकत ना हो माँ का नाता,
तहरीक--कयास हो ना मन में;
आँखों में अब आंसू हो,
सहरा भी हो गुलशन-गुलशन;
खुशियाँ हों जन जीवन अंतर,
नयनों में हो ऐसा मंजर|
नयनों में हो ऐसा मंजर||



गौरव पन्त
२० जून,२०१०

Thursday, June 17, 2010

सदियाँ बीती , मौसम बीते, सपने -सपने .....

सदियाँ बीती, मौसम बीते, सपने -सपने,
होगा कैसा वह पल , होंगे गैर भी अपने,
आह कब तक इन्तजार है इन्तजार बस,
आह कब तक रुदन करें मिलकर सब|

दूर उठ रहा कहीं धुआं मानवता का,
जाग उठो तुम ,आज बचा लो जीवन जन का,
खुद से पिटते - पिटते देखो शिथिल हो गयी,
हर आँगन की ख़ुशी जाने कहाँ खो गयी|

सपने प्यार वफ़ा के देखो बिखर रहे हैं,
कुछ खुश हैं तो बिलख रहे हैं,
इक पूरब, इक पश्चिम, कुछ उत्तर-दक्षिण,
यूँ अजब अजूबे दुनियां के बिखर रहे हैं|

छोड़ इक राह को तो हर राह अकेले,
चलता सहता हर दुःख और हर आह अकेले,
इक राह साथ चलते हैं मनुज इस धरती पर,
दर्द विनाश और मानवता की राख है जिसपर|

अंधकार है तो प्रकाश की किरण जलाकर,
हाथ- हाथ दे साथ- साथ चल कदम मिलकर,
गम क्या है सब अपना ही तो किया धरा है,
काफिले सजा प्यार के लिए वसुंधरा है|

आज जाग जीवन जग हित अर्पण कर दे,
ज्योति रहेगी या तम ये निर्णय कर दे,
मेरे जीवन के हर सपने को सच कर दे,
प्यार वफ़ा से जग जीवन ज्योतिर्मय कर दे|
खाली झोली भर दे...
खाली झोली भर दे...


गौरव पन्त
१९ जून,
२०१०

कभी हारो न हिम्मत.........

ढल रहा सूरज नहीं, है एक ज्वाला जिन्दगी,
क्या हुआ कांटे पड़े हैं फूल भी खिलता यहीं,
उसकी तो पहचान इतनी, और शोभा भी यही,
खिलता सदा काँटों में और मिट जाता यहीं|

उठ रही आँधियों में, लौ खोज लेती जिन्दगी,
क्या हुआ की दूर तक, सहरा ही है गुलशन नहीं,
क्या गम है की उफान लेते, सागर में हैं अब कस्तियाँ,
शांत समंदर कुशल तैराक पैदा करता नहीं|


गौरव पन्त
१८ जून,२०१०

इक विनय ईश्वर से......

मेरी हर आवाज मानवता की आवाज बने,
मेरे दिल धड़कन नवयुग का आगाज करे,
चाह नहीं मेरे मन की आवाज मेरी आदेश बने ,
पर इतनी हसरत है दिल की, पदचिह्न मेरे पहचान बने |

वह राह मुझे मंजूर नहीं, जिसपर शूल न हों बिखरे,
उस विजय की चाह नहीं मन में, जो मानवता से दूर करे,
वह शक्ति नहीं बनना चाहूं ,जो निर्बल पर अन्याय करे,
वह फूल बना दो हे भगवन, जो वीरों का सम्मान करे|

सूरज सा चमकना चाहता हूँ ,दीपक न बना देना मुझको,
खुशियाँ बिखराना चाहता हूँ ,काँटा न बना देना मुझको,
पत्थर न बनाना मुझको तुम, पूजा जाऊं ठोकर खाऊं,
दिल की हसरत है हिना बनकर,मैं जीवन में रंग लाऊँ|

हर नयी किरण के साथ मैं, मानवता का अभिषेक करूं,
आश निराश हुए मन में, नवजीवन का संचार करूं,
अश्क चुरा लूँ आँखों से, और विप्पत्ति में ढाल बनू,
यूँ दर्द भरी इस दुनियां से ,खुशियों का व्यापार करूं|

एसे कुछ ख्वाब संजोये आंखें हैं,पर भटक रहा है मन मेरा,
है जूनून भी सांसों में, माया ने है मुझको घेरा,
प्रभो..!, नहीं विश्वाश मुझे,सफल बनोगे इक दिन तुम,
जब ख्वाब दिखाए हैं तुमने, तो राह बताओगे भी तुम|

गौरव पन्त
१७ जून,२०१०