Thursday, June 17, 2010

सदियाँ बीती , मौसम बीते, सपने -सपने .....

सदियाँ बीती, मौसम बीते, सपने -सपने,
होगा कैसा वह पल , होंगे गैर भी अपने,
आह कब तक इन्तजार है इन्तजार बस,
आह कब तक रुदन करें मिलकर सब|

दूर उठ रहा कहीं धुआं मानवता का,
जाग उठो तुम ,आज बचा लो जीवन जन का,
खुद से पिटते - पिटते देखो शिथिल हो गयी,
हर आँगन की ख़ुशी जाने कहाँ खो गयी|

सपने प्यार वफ़ा के देखो बिखर रहे हैं,
कुछ खुश हैं तो बिलख रहे हैं,
इक पूरब, इक पश्चिम, कुछ उत्तर-दक्षिण,
यूँ अजब अजूबे दुनियां के बिखर रहे हैं|

छोड़ इक राह को तो हर राह अकेले,
चलता सहता हर दुःख और हर आह अकेले,
इक राह साथ चलते हैं मनुज इस धरती पर,
दर्द विनाश और मानवता की राख है जिसपर|

अंधकार है तो प्रकाश की किरण जलाकर,
हाथ- हाथ दे साथ- साथ चल कदम मिलकर,
गम क्या है सब अपना ही तो किया धरा है,
काफिले सजा प्यार के लिए वसुंधरा है|

आज जाग जीवन जग हित अर्पण कर दे,
ज्योति रहेगी या तम ये निर्णय कर दे,
मेरे जीवन के हर सपने को सच कर दे,
प्यार वफ़ा से जग जीवन ज्योतिर्मय कर दे|
खाली झोली भर दे...
खाली झोली भर दे...


गौरव पन्त
१९ जून,
२०१०

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