Monday, November 14, 2011

अनाथ...!

बचपन की यादें बहुत मीठी होती हैं..शायद हम सभी का बचपन कुछ एसे बीता है की हमे किसी चीज की फ़िक्र ही नहीं थी...हर जिद पूरी होती थी हमारी...एक खिलौना टूटता तो दूसरा..ये पोशाक पसंद नहीं तो दूसरी..ये नहीं खाना तो माँ पुचकार के कुछ और चीज खिलाती..चंदा मामा था हमारा और सूरज चाचू..अगर मै ये कहूँ कि हम सभी एक बार फिर से अपना बचपन जीना चाहते हैं तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी..

पर कुछ एसे भी हैं जिनका बचपन उनके लिए एक अभिशाप से बढकर और कुछ नहीं है...उन्हें हर चीज कि फ़िक्र करनी पड़ती है..रोटी,कपडा और मकान जैसी चीजों कि भी..किसी कि जूठन से पेट भरते हैं वो...सर्द रातों मै ठिठुर के सो जाते हैं...नीला आसमान ही उनका मकान है...कटोरा ही उनका खिलौना..पहनने के लिए कुछ भी नहीं होता तो पसंद क्या और नापसंद क्या...धरती माँ हमेसा उन्हें अपनी गोद में सुलाती है..चंदा मामा रात भर देखकर हँसते और सूरज चाचू दिन भर झुलसाते...जी हाँ आप ठीक समझ रहे हैं मै बात कर रहा हूँ.............!!!!!

दोपहर कि चिलमिलाती   धूप में,
नग्न पैरों से, जलता रहा चलता रहा,
थी जुस्तजू दो जून रोटी कि मुझे,
इस वास्ते दुत्कार भी सहता रहा

बरसात के मौसम लगें सबको हसीं,
छीन लेते जिन्दगी कि हर ख़ुशी,
मेरा आशियाना भीगता या डूबता,
और अश्क हैं आंखों में , दिखते नहीं

अत्याधुनिक उपकरणों के आगोश में,
सर्दियों में रात को सोता जगत है,
तब नीद मेरी कटकटाती ठिठुरती,
सोचता हूँ ऐ खुदा तू किधर है

मंदिरों की कतारों में, चढ़ावे की तरफ,
लाचार नज़रों से सदा तकता रहा,
धर्म का अब ढोंग करती मनुजता,
और भगवान भी चढ़ावे पर तुलता रहा

हम-उम्र जब मेरे, खिलौने हाथ में लेकर,
बालहट जिद करते हैं, माँ-बाप से,
इस उम्मीद से किस्मत आजमाता हूँ में,
उपहार या प्रायः, दुत्कार के वास्ते

मजबूर हूँ बेबस हूँ कुछ लाचार हूँ,
किश्मत नहीं इन्साफ का भी मारा हुआ,
बाल श्रम कानून का अभिशिप्त हूँ,मै खुदा,
बतला मुझे अबोध बालक का दोष क्या

क्या यही प्रश्न उस बच्चे के मन में भी उठता है जो विद्या के घर( पुणे विद्यापीठ) के समीप होकर भी कभी ज्ञान लेने का एक भी मौका नहीं पा सकता...और एक अनजान सी जिन्दगी , लाचार सी जिन्दगी जीने को मजबूर है.. ऐ खुदा..! तेरी ये दुनिया ऐसी क्यों है ...?अगर तेरी ये दुनियां ऐसी ही है तो मुझे मंजूर नहीं.....


Sunday, April 24, 2011

जाग उठो मुसाफिर......

मेरी यह कविता, कविता नहीं, प्रेरणा के दो बोल हैं,एक अर्ज है......!

उठ जाग मुसाफिर राह तके,
इस राह में सिर को कटा जाना
कतरा जो लहू का मांगे वतन,
खुद अपनी हस्ती मिटा जाना।१
                                   गर फूल मिलें तुझे राहों में,
                                   उसकी खुश्बू बिखरा जाना
                                   गर शूल मिलें तुझे राहों में,
                                   उनपर खुद को तू लिटा जाना।२ 
जो मौत द्वार दस्तक देती,
कहीं लहू ना पानी बन जाये
सिंह सा दहाड़ तू बार-बार,
फिर दया ना गुलामी बन पाए।३
                                  पूजा की थाल में फूल नहीं,
                                  तू सिर की भेंट चदा जाना
                                  तू मोम नहीं पत्थर बनकर,
                                  अंगार पे चलना सिखा जाना।४
गर रंग भेद हो धर्म भेद,
ईश्वर एक बात बता जाना
अज्ञान अँधेरा बढ़ जाये,
ज्ञान की ज्योति जगा जाना।५
                                  खून की नदियाँ बहती हों,
                                  प्रेम उमंग जगा जाना
                                  पथभ्रष्ट मानव होने लगे,
                                  तो सच्चा ज्ञान करा जाना।६
मजधार में मानवता पहुंचे,
बेडा पार लगा जाना
जब कर्म भाग्य के भेद बढे,
गीता का ज्ञान करा जाना।७
                                 आज पुकारूं तुझको में,
                                 मेरी अर्ज ना ठुकरा जाना
                                 मुझको भरोसा तुझपर है,
                                 दिल पर पत्थर न रख जाना।८


गौरव पन्त
२४ अप्रैल,२०११  
                                 
                                 
                                 
                                     
                 


Friday, April 22, 2011

ये राजनीति है प्यारे.....!

ये राजनीति है प्यारे,
कर देती वारे-न्यारे,
ये राजनीति है प्यारे

कुर्सी की खींचातानी है ,
मतलब की एक कहानी है,
तू ना अपना, ना बेगाना,
बस वक़्त की मेहरबानी है,
तेरा मेरा धन यदि,
राजधन होता है,
तो तू है साथ मेरे,
वरना दूर हट जा रे,
ये राजनीति है प्यारे..

हाथ जोड़कर विनती करते,
अपने को सेवक ये कहते,
वोट दो राजा बन जाये,
वरना फिर झोली फैलायें,
हुक्का बियर बरंडी रम,
पीते हैं हो ख़ुशी या गम,
आज खड़े हैं हाथ जोडकर,
चुनाव हैं पड़े वोट के लाले,
ये राजनीति है प्यारे..

ढोंगी भगत राजनीति के,
राग अलापते हैं कुछ,
हाथी के दांतों के सामान,
होते कुछ हैं और दिखते कुछ,
ये सुखी, अंतर्मुखी,
हों दुखी, तो बहिर्मुखी,
करतूतें करते काले,
इनके उसूल निराले,
ये राजनीति है प्यारे..

जीते तो दूर जायेंगे,
हारे तो पास आयेंगे,
हार जीत के खेल में ये,
हमको उलझाते जायेंगे,
जोड़- तोड़ सिरों को फोड़,
मार-काट मचा उत्पात,
हैं जिन्दे चंडाल ये,
हैं इनके खेल निराले,
ये राजनीति है प्यारे..


गौरव पन्त
२३ अप्रैल, २०११  
 
     




Thursday, April 21, 2011

मेरी प्यारी माँ मुझसे कभी दूर ना जाना.....!

वो मेरा बचपन,वो मीठी सी यादें,
कहाँ खो गयी हैं हैं, वो मस्ती की बातें;
कभी धूप में, कभी मिट्टी से सनकर,
खेल-खेल की लडाई,और रोकर बिलखकर;
तेरे आँचल से लिपटना,सिसकना सिमटना,
इक प्यारी सी लडाई के,तुझको किस्से बताना;
हर गलती पर मेरी, तेरा डांटकर पुचकारना,
याद आता है माँ, तेरा आँचल सुहाना!!

हर रोज नयी-नयी,शरारतें करना,
परेशान तुझको करना और दूर भाग जाना;
कभी गलती छुपाकर,पापा की मार से बचाना,
तो कभी गलती पर तेरा,यूँ आंखें दिखाना;
मेरा गुस्सा तुझसे होना, रोना बिलखना,
"कट्टी" भी तुझसे करना,और तुझी से लिपटना,
होली में गुजिया,मिठाई दिवाली में चुराना,
याद आता है माँ,वो पिटाई का जमाना!!

मैं दूर हूँ तुझसे,अब यादें रुलाती हैं,
वो तेरी प्यारी-प्यारी मीठी बातें बुलाती हैं,
ऐ माँ!,मैं दौड़कर तेरे पास आना चाहता हूँ,
पर क्यों जिंदगानी,मुझे दूर ही ले जाती है;
जब लौटकर आऊं,तेरे आँचल की छावं में,
फिर से पुचकारेगी मुझे,लिए प्रेम-अश्रु आँख में,
यूँ गोद में खेलेगा फिर,वही बचपन सुहाना,
मेरी प्यारी माँ!, मुझसे कभी दूर ना जाना...!!



गौरव पन्त
२२ अप्रैल, २०११