बचपन की यादें बहुत मीठी होती हैं..शायद हम सभी का बचपन कुछ एसे बीता है की हमे किसी चीज की फ़िक्र ही नहीं थी...हर जिद पूरी होती थी हमारी...एक खिलौना टूटता तो दूसरा..ये पोशाक पसंद नहीं तो दूसरी..ये नहीं खाना तो माँ पुचकार के कुछ और चीज खिलाती..चंदा मामा था हमारा और सूरज चाचू..अगर मै ये कहूँ कि हम सभी एक बार फिर से अपना बचपन जीना चाहते हैं तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी..
पर कुछ एसे भी हैं जिनका बचपन उनके लिए एक अभिशाप से बढकर और कुछ नहीं है...उन्हें हर चीज कि फ़िक्र करनी पड़ती है..रोटी,कपडा और मकान जैसी चीजों कि भी..किसी कि जूठन से पेट भरते हैं वो...सर्द रातों मै ठिठुर के सो जाते हैं...नीला आसमान ही उनका मकान है...कटोरा ही उनका खिलौना..पहनने के लिए कुछ भी नहीं होता तो पसंद क्या और नापसंद क्या...धरती माँ हमेसा उन्हें अपनी गोद में सुलाती है..चंदा मामा रात भर देखकर हँसते और सूरज चाचू दिन भर झुलसाते...जी हाँ आप ठीक समझ रहे हैं मै बात कर रहा हूँ.............!!!!!
दोपहर कि चिलमिलाती धूप में,
नग्न पैरों से, जलता रहा चलता रहा,
थी जुस्तजू दो जून रोटी कि मुझे,
इस वास्ते दुत्कार भी सहता रहा।।
बरसात के मौसम लगें सबको हसीं,
छीन लेते जिन्दगी कि हर ख़ुशी,
मेरा आशियाना भीगता या डूबता,
और अश्क हैं आंखों में , दिखते नहीं।।
अत्याधुनिक उपकरणों के आगोश में,
सर्दियों में रात को सोता जगत है,
तब नीद मेरी कटकटाती ठिठुरती,
सोचता हूँ ऐ खुदा तू किधर है।।
मंदिरों की कतारों में, चढ़ावे की तरफ,
लाचार नज़रों से सदा तकता रहा,
धर्म का अब ढोंग करती मनुजता,
और भगवान भी चढ़ावे पर तुलता रहा।।
हम-उम्र जब मेरे, खिलौने हाथ में लेकर,
बालहट जिद करते हैं, माँ-बाप से,
इस उम्मीद से किस्मत आजमाता हूँ में,
उपहार या प्रायः, दुत्कार के वास्ते।।
मजबूर हूँ बेबस हूँ कुछ लाचार हूँ,
किश्मत नहीं इन्साफ का भी मारा हुआ,
बाल श्रम कानून का अभिशिप्त हूँ,मै खुदा,
बतला मुझे अबोध बालक का दोष क्या।।
क्या यही प्रश्न उस बच्चे के मन में भी उठता है जो विद्या के घर( पुणे विद्यापीठ) के समीप होकर भी कभी ज्ञान लेने का एक भी मौका नहीं पा सकता...और एक अनजान सी जिन्दगी , लाचार सी जिन्दगी जीने को मजबूर है.. ऐ खुदा..! तेरी ये दुनिया ऐसी क्यों है ...?अगर तेरी ये दुनियां ऐसी ही है तो मुझे मंजूर नहीं.....
पर कुछ एसे भी हैं जिनका बचपन उनके लिए एक अभिशाप से बढकर और कुछ नहीं है...उन्हें हर चीज कि फ़िक्र करनी पड़ती है..रोटी,कपडा और मकान जैसी चीजों कि भी..किसी कि जूठन से पेट भरते हैं वो...सर्द रातों मै ठिठुर के सो जाते हैं...नीला आसमान ही उनका मकान है...कटोरा ही उनका खिलौना..पहनने के लिए कुछ भी नहीं होता तो पसंद क्या और नापसंद क्या...धरती माँ हमेसा उन्हें अपनी गोद में सुलाती है..चंदा मामा रात भर देखकर हँसते और सूरज चाचू दिन भर झुलसाते...जी हाँ आप ठीक समझ रहे हैं मै बात कर रहा हूँ.............!!!!!
दोपहर कि चिलमिलाती धूप में,
नग्न पैरों से, जलता रहा चलता रहा,
थी जुस्तजू दो जून रोटी कि मुझे,
इस वास्ते दुत्कार भी सहता रहा।।
बरसात के मौसम लगें सबको हसीं,
छीन लेते जिन्दगी कि हर ख़ुशी,
मेरा आशियाना भीगता या डूबता,
और अश्क हैं आंखों में , दिखते नहीं।।
अत्याधुनिक उपकरणों के आगोश में,
सर्दियों में रात को सोता जगत है,
तब नीद मेरी कटकटाती ठिठुरती,
सोचता हूँ ऐ खुदा तू किधर है।।
मंदिरों की कतारों में, चढ़ावे की तरफ,
लाचार नज़रों से सदा तकता रहा,
धर्म का अब ढोंग करती मनुजता,
और भगवान भी चढ़ावे पर तुलता रहा।।
हम-उम्र जब मेरे, खिलौने हाथ में लेकर,
बालहट जिद करते हैं, माँ-बाप से,
इस उम्मीद से किस्मत आजमाता हूँ में,
उपहार या प्रायः, दुत्कार के वास्ते।।
मजबूर हूँ बेबस हूँ कुछ लाचार हूँ,
किश्मत नहीं इन्साफ का भी मारा हुआ,
बाल श्रम कानून का अभिशिप्त हूँ,मै खुदा,
बतला मुझे अबोध बालक का दोष क्या।।
क्या यही प्रश्न उस बच्चे के मन में भी उठता है जो विद्या के घर( पुणे विद्यापीठ) के समीप होकर भी कभी ज्ञान लेने का एक भी मौका नहीं पा सकता...और एक अनजान सी जिन्दगी , लाचार सी जिन्दगी जीने को मजबूर है.. ऐ खुदा..! तेरी ये दुनिया ऐसी क्यों है ...?अगर तेरी ये दुनियां ऐसी ही है तो मुझे मंजूर नहीं.....