जिन्दगी की कशमकश में कभी जिन्दगी नज़र नहीं आती ..नज़र आती है तो बस मशीन ...कौन आज ज्ञान के लिए पढता है ..हम तो पढ़ते हैं बस नौकरी के लिए..."तारे जमीन पे" और "3 idiots" जैसी फिल्मे तो बहुत बनेंगी ...पर क्या कभी हम बदलेंगे...!
कभी ख़ामोशी , तो कभी महफ़िल में ,
कभी आप में , चुपचाप में ,
मै खुद की खामोशियाँ टटोलता हूँ ।
कुछ अनबन, कुछ उलझन सी मन में ,
जीत हार के जाल फंसें जीवन में ,
ना जाने मैं क्या ढूंढता हूँ।
कभी सोचा जीवन क़ा अर्थ क्या,
मशीन जो बस भागे जा रही है ,
बचपन किताबों का बोझ ढोता रहा ,
जवानी अर्थ हित व्यर्थ हो रही ,
यूँ एक दिन बुढ़ापा आ थाम लेगा ,
और ये जीवन भी न रहेगा ।
वो कल जो कभी आज ना बना,
वो बीते पल जो मनमाफिक ना हुए,
ढूंढता रहा अपने वजूद को खुद में,
कभी तो मुझमे भी इक इन्सान मिले,
कभी सोचकर इनको पूछता हूँ खुद से ,
इतने बसन्त बीते ,पर कभी जिन्दगी जिये ..?
पर क्यों..! कैसे मिलूं सकूँ मैं खुद से,
मैं तो एक भौतिक कठपुतली हूँ..कठपुतली..!
मैं कल का विद्यार्थी ,लेजाकर विद्या की अर्थी,
बेचता हूँ बाज़ार में, ले कौड़ियों के मोल,
क्योंकि बचपन से आजतक,अपना वजूद मिटाया मैंने,
और लो आज मैं खुद को ही बेचने चला हूँ...!!
गौरव पंत
8-जुलाई-2012
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