यह कविता "वर्षा ऋतु" और "विवाह -वेदी पर बैठी दुल्हन" के बीच तुलनात्मक अध्ययन का एक छोटा सा प्रयास है । इसी तुलनात्मक अध्ययन को ध्यान में रखकर पढियेगा , तो शायद पसंद आये ...।
घन घनघोर, तिमिर,अरुण घन बीच एसे छिप रहा,
मनु मकु बिलोकत अंच से,लजियात चंद्र छिप रहा ॥
चंचल चपल सुहावती, कलि गगन की ओढ़नी में ,
रजत टीक सुहावती, केश रेशमी शीश में ॥
घन वस्त्र ओढ़े गगन का , अंग ऐसे दिख रहा ,
नील नयन अंजन लिए, मृग नयनी का जो दिख रहा ।
वन उपवनों में चंचल मयूर, न्रत्य करने हैं लगे,
कन्त घर जाने के, उल्लास से मन डोलने लगे ॥
गजराज से भिड़ते घनों से, धरा डोलने लगी,
आज बेसुध दुल्हनी को,शोक से भरने लगी।
गजराज निज लहू से,धरा को भिगोने लगे,
रूपसी नारी नयन, अंश्रु से भरने लगे॥
मिलेंगे हाथ पर ,छूटे रहेंगे ये सदा,
बरसात जैसे जलद बनकर, मिलेंगे हम सदा।
माफ़ करना बदली कहे, रेत भू को देख कर,
माफ़ कर देना मुझे,तुम अपनी प्यारी सोचकर॥
गौरव पन्त
३१ -मार्च-२०१३
घन घनघोर, तिमिर,अरुण घन बीच एसे छिप रहा,
मनु मकु बिलोकत अंच से,लजियात चंद्र छिप रहा ॥
चंचल चपल सुहावती, कलि गगन की ओढ़नी में ,
रजत टीक सुहावती, केश रेशमी शीश में ॥
घन वस्त्र ओढ़े गगन का , अंग ऐसे दिख रहा ,
नील नयन अंजन लिए, मृग नयनी का जो दिख रहा ।
वन उपवनों में चंचल मयूर, न्रत्य करने हैं लगे,
कन्त घर जाने के, उल्लास से मन डोलने लगे ॥
गजराज से भिड़ते घनों से, धरा डोलने लगी,
आज बेसुध दुल्हनी को,शोक से भरने लगी।
गजराज निज लहू से,धरा को भिगोने लगे,
रूपसी नारी नयन, अंश्रु से भरने लगे॥
मिलेंगे हाथ पर ,छूटे रहेंगे ये सदा,
बरसात जैसे जलद बनकर, मिलेंगे हम सदा।
माफ़ करना बदली कहे, रेत भू को देख कर,
माफ़ कर देना मुझे,तुम अपनी प्यारी सोचकर॥
गौरव पन्त
३१ -मार्च-२०१३
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