Monday, November 1, 2010

भारतीय समाज में स्त्रियों की दुर्दशा के लिए दोषी कौन.....?

भारतीय समाज आदिकाल से ही पुरुष प्रधान समाज रहा है इतिहास के पन्ने पलट लीजिये या वर्तमान पर नजर डालिए, समग्र रूप से सदैव नारी की स्थिति दयनीय ही नजर आयेगी महिला सशक्तिकरण के लिए किये जा रहे प्रयासों के बावजूद भी लगातार महिला अशक्तिकरण ही हो रहा है और इसका जीता जगता प्रमाण है - लगातार घटता लिंगानुपात एवं महिलाओं पर बड़ते अत्याचार

मुझे इतिहास की पन्नों को अधिक पलटने की जरुरत नहीं है पर्दा प्रथा, बाल विवाह , सती प्रथा एवं बहु:विवाह जैसी कुरीतियाँ १९ वीं शताब्दी तक भारतीय समाज में व्याप्त रही हैं उपभोग की वस्तु के रूप में पौराणिक काल से आजतक उसका उपभोग किया जाता रहा है बलात्कार, दहेज़ प्रथा एवं कन्या भ्रूण हत्या इस सभ्य एवं सुसंकृत होने का दंभ भरने वाले भारतीय समाज में स्त्रियों की स्थिति को भलीभांति प्रदर्शित करते हैं काश यह सिलसिला यहीं थम गया होता परन्तु नहीं..! उसपर तो हर रोज अत्याचार होता है हर उलाहना उसी को सहना पड़ता है चाहे गलती हो या ना हो क्यों आदि काल से अग्नि परीक्षा केवल स्त्री को ही देनी पड़ी है..? आखिर कौन है दोषी....कौन..?

वास्तव में दोषी है - यह समाज बराबर के दोषी स्त्री एवं पुरुष जी हाँ , यही कटु सत्य है की वर्तमान परिस्थितियों में स्त्रिओं क़ी सामाजिक दुर्दशा के लिए स्त्रियाँ भी उतनी ही दोषी हैं जितने पुरुष

यह हम सब जानते हैं की घटता लिंगानुपात एक बहुत बड़ी समस्या है और सरकार के अथक प्रयासों के बावजूद भी यह अंतर बढता ही जा रहा है सरकारी कानूनों को धता बताकर लिंगपरिक्षण भी होते हैं और गर्भपात भी यह सब भ्रष्ट सरकार एवं संकुचित सोच वाले इसी समाज द्वारा पोषित हो रहा है सरकार इसलिए क्योंकि प्रशासन को अपराधियों के विषय में समस्त जानकारी होने के बावजूद भी प्रशासन अपराध के इस यज्ञ को तब तक सह देता रहता है जबतक इस पावन यज्ञं से कुछ भाग उसे मिलता रहता है और कार्यवाही तभी होती है जब सिर पर तलवार लटक जाती है समाज इसलिए दोषी है क्योंकि अधिकांसh शिशु रूप में बालक को ही चाहते हैं क्योंकि लड़की तो उनके लिए पराया धन है , किसी की अमानत है और लड़का बुढ़ापे की लाठी, फिर चाहे लाठी को दीमक ही क्यों ना लग जाए कब समझेंगे हम की विवाह के पश्चात् भी एक सभ्य सुसंकृत लड़की अपने माता पिता का सहारा बन सकती है , बशर्ते वह लकीर की फ़कीर न बने | कई बार तो स्त्री ही एक कन्या को जन्म नहीं देना चाहती | इसके पीछे चाहे कोई भी भाव क्यों न हो, निर्विवाद रूप से यह अपराध ही है | यदि स्त्री स्वयं स्त्री जाति की रक्षा के लिए आगे नहीं आयेगी तो उसकी दुर्दसा स्वाभाविक ही है |

जिस प्रकार पैसा पैसे को खींचता है उसी प्रकार अपराध अपराध को सह देता है| कभी कभार तो सामाजिक परिस्थितियां ही कन्या भ्रूण हत्या के लिए विवश कर देती है और ऐसी है एक विवशता है - दहेज प्रथा | दहेज प्रथा पर्वतीय अंचलों में तो कम परन्तु मैदानी भागों में एक भयानक महामारी की तरह फ़ैल रही है | इसका भयानक एवं रूह कंपा देने वाला स्वरूप मात्र ही मानवता के तार- तार हो चुके आँचल का वर्णन करने के लिए पर्याप्त है | दहेज के लालची परिवारजनों ने तो स्त्री का जीवन नारकीय बना दिया है | मानसिक एवं दैहिक शोषण से तंग आकर कभी वह आत्महत्या कर लेती है तो कभी उसकी हत्या कर दी जाती है |अक्सर देखा गया है की इन सबके पीछे परिवार का स्त्री पक्ष भी बराबर का दोषी होता है | मैदानी क्षेत्रों में तो लड़के नीलामी की वस्तु बन चुके हैं जिनकी बोली लगायी जाती है | इसी "वैवाहिक - व्यापार " के भय से कई कन्याएँ कोख में ही मार दी जाती हैं | ऐसा भी नहीं की दहेज प्रथा के ये पोषक शिक्षित नहीं हैं | आलम तो यह है कि वर जितना शिक्षित होगा बोली भी उतनी ही ऊँची लगेगी | आखिर विवाह के पवित्र बंधन को व्यापार का रूप देना कहाँ तक उचित है..?

महिला सशक्तिकरण के इस दौर में अब बात कि जाये उस अपराध कि जो अपराध नहीं बल्कि अभिशाप है मानवता के लिए - बलात्कार | बलात्कार की घटनाओं के दिन- प्रतिदिन बड़ते ग्राफ के लिए मुख्यतया पुरुष प्रधान समाज ही जिम्मेदार है परन्तु स्त्रियों की भूमिका को भी नाकारा नहीं जा सकता | हमारे पौराणिक ग्रंथों में स्त्रियों के लिए बताये गए आभूषणों में से वर्तमान समाज के परिपेक्ष्य में उनमे से कुछ या तो औचित्यहीन हो चुके हैं या फिर उन्हें पुनः परिभाषित करना आवश्यक है क्योंकि ये समय की मांग है और उचित भी | परन्तु पश्चिमी सभ्यता के आविर्भाव और आँख मूँद कर उनका अनुकरण की होड़ ने स्त्रियों की दशा को और अधिक बिगाड़ा है | पश्चिमी सभ्यता के अंधानुकरण ने कहीं हमारा नैतिक पतन एवं आचार व्यहार में आमूलचूल परिवर्तन किया है तो कहीं फूहड़ता एवं नग्नता का बीजारोपण | मानव विकास के आरंभिक काल में निर्वस्त्र घूमना हमारी मजबूरी थी जो आज फैशन बन चुका है| आज किसी द्रोपदी के चीर - हरण में भगवान कृष्ण आ भी जाएँ तो उन्हें भी सोचना पड़ेगा की वस्त्र हैं ही कहाँ जो बड़ाऊं | वास्तविकता तो यह है कि पश्चिमी आकर्षण ने भारतीय स्त्रिओं को बाहर से तो पश्चिमी बना दिया है किन्तु आज भी अधिकांश आंतरिक रूप से पारंपरिक भारतीय संस्कृति का आदर करती हैं | क्यों नहीं समझती स्त्रियाँ कि दो नावों में पैर रखकर जीवन यात्रा असंभव है , जिस वजह से कभी-कभी बलात्कार, दैहिक एवं मानसिक शोषण के भंवर से गुजरना पड़ता है और पश्चिमी सभ्यता को पूर्ण रूप से अंगीकृत नहीं कर पाने के कारण वे इस भंवर से पार नहीं प़ा पाती | तत्पश्चात हरकत में आता है यह समाज जो पहले शोषण करता है फिर दोषारोपण भी और फिर मानसिक रूप से प्रताड़ित करके उबरने का एक मौका भी नहीं देता |

यहाँ पर कुछ भद्र पुरुष नहिलाओं कि आधुनिक दिखने कि आंधी दौड़, वस्त्रों एवं कामोत्तेजित शैली का वास्ता देकर बलात्कार एवं दैहिक शोषण कि बड़ती घटनाओं कि पूरी हांड़ी महिलाओं के सिर फोड़कर खुद को दूध का धुला साबित करते जरूर नजर आयेंगे | मैं पूछना चाहता हूँ ऐसे पुरुष समाज से - क्या खाने कि थाली में जो कुछ भी परोसा जाता है आप उसे खाद्य- अखाद्य का विचार किये बिना सहर्ष स्वीकार कर लेते हैं..? ...जहर भी...| नहीं ना.. |
वास्तव में तो हमाम में सब नंगे हैं | आंकड़ों पर नजर डालकर देख लीजिये बलात्कार एवं दैहिक शोषण क़ी शिकार लड़कियों में से अधिकांश का जीवन पश्चिमी जीवनशैली से अछूता है | कई बार तो अबोध एक- दो वर्ष क़ी बच्ची, जो फैशन शब्द का अर्थ तो बहुत दूर, उच्चारण तक सही से नहीं कर सकती, को भी बहशी दरिंदों कि हवस का शिकार होना पड़ता है | मैं और अधिक विस्तार में जाकर अपनी लेखनी को और अधिक शर्मशार नहीं करना चाहता हूँ | अगर आज ऐसी बालिकाएं जिनके दूध के दांत भी सही से नहीं आये , इस आधुनिक सभ्य समाज में सुरक्षित नहीं हैं तो मैं इसका अधिकांश दोष हमारी विकृत मानसिकता को देना चाहूँगा |

काश स्त्रियों कि सामाजिक दुर्दशा कि व्याख्या करने के लिए मेरे पास शब्द नहीं बचते, परन्तु हकीकत तो यह है कि मैंने वास्तविकता के सागर से आन्चुली मात्र जल ही उठाया है | जगह-जगह खुले वैश्यालय, शराब कि आढ़ में देहा का व्यापार करने वाले मदिरालय विश्व कि सबसे पुरातन सभ्य्त्या को मुंह चिड़ाते नजर आते हैं | आर्थिक सशक्तिकरण के इस दौर में कभी गरीबी एवं दरिद्रता नारी को देह व्यापर के दलदल में घसीटती है तो कभी अनावश्यक
भौतिक जरूरतों, धन एवं पदलोलुपता के वशीभूत नहीं स्वयं ही इस दलदल कि ओर खिंची चली आती है | अश्लीलता को परोसने वाली ब्लू फ़िल्में और C - ग्रेड फिल्मों पर प्रकाश डालकर में शब्दों कि सीमा का उल्लंघन नहीं करना चाहूँगा| इसलिए कहा जाये कि किसी नारी को वैश्या बनाने के लिए समाज ही दोषी है तो कोई अत्शयोक्ति नहीं होगी |

अभी भी बहुत कुछ कहना बाकि है परन्तु में अब रुख करना चाहूँगा भारतीय सामाजिक व्यस्था क़ी ओर जो भी कम दोषी नहीं है स्त्रियों क़ी दुर्दशा के लिए | रामचरितमानस से चौपाई क़ी इस पंक्ति को ही ले लीजिये - " ढोल गंवार शुद्र पशु नारी, सकल ताड़ना के अधिकारी" | अबला शब्द का प्रयोग आदिकाल से ही उसके लिए होता आ रहा है | हर अग्नि परीक्षा त्रेतायुंग से आज तक केवल स्त्री को ही देनी पड़ी है | पुरातनकाल से ही पुरुष प्रधान समाज स्त्री वर्ग को कमजोर वर्ग क़ी संज्ञा देता आ रहा है और आज भी इसका पोषक है | महिला मंचों से महिला सशक्तिकरण पर चाहे कितनी भी बड़ी बड़ी बातें क्यों न बोल दी जायें, समाज क़ी सबसे सूक्ष्म इकाई परिवार तक पहुँचते- पहुँचते सभी आवाजें दब जाती हैं | कन्या आज भी हमे पराया धन ही नजर आता है |

महिला सशक्तिकरण क़ी कलई खोलने वाली एक और समस्या है - बाल विवाह | वैसे तो बाल - विवाह का सम्बन्ध लड़के और लड़की दोनों से है किन्तु अक्सर यह भी देखा गया है क़ी कम उम्र क़ी लड़की को अधिक उम्र के लड़के के साथ पैसों के लालच में जानवरों क़ी भांति हांक दिया जाता है तो कहीं शादी क़ी रश्म के नाम पर बेच दिया जाता है | विधवा विवाह और तलाकशुदा लड़की के पुनःविवाह को हमारा समाज आज तक मान्यता नहीं दे सका है | हमारे इस पारंपरिक समाज में माता पिता अपने लड़के का पुनः विवाह तो कर सकते हैं किन्तु किसी तलाकसुदा अथवा विधवा को अपनी बहू बनाना उन्हें मंजूर नहीं | विवाह के पश्चात् अगर पति मर जाये तो लड़की पर दोषारोपण करते बहुत सुना है क़ी लड़की के ग्रह ख़राब होंगे किन्तु पत्नी मर जाये तो लड़के पर यही दोष मढ़ते कभी नहीं सुना | अतः स्त्री पुरष क़ी समानता क़ी लहलहाती फसल को काटने के लिए पारंपरिक भारतीय संस्कृत भी बहुत हद तक उत्तरदायी है |

ग्रामीण अंचलों में तो स्त्रिओं क़ी हालत और भी बदतर है | एक ओर स्त्री परिवार का भरण पोषण करने क़ी लिए दिन भर मेहनत मजदूरी करके दो पैसे कमाती है तो दूसरी तरफ पति दिन दोपहर नशे में धुत रहता है | थक कर चूर-चूर हो चुकी उस महिला को सुकून क़ी दो रोटी नहीं, पति परमेश्वर क़ी मारपीट और गालियाँ मिलती हैं | क्या जरूरत है सबकुछ नसीब पर छोड़ने क़ी..? कब तक चलता रहेगा परम्परों का यह ढोंग..कब तक....? अरे मूर्खो सीता जैसी पतिव्रता नारी उसी स्त्री को होना चाहिए जिसका पति भी राम हो, किन्तु यदि पति ही रावण है तो आज सीता नहीं दुर्गा क़ी आवश्यकता है |

हकीकत तो यह है क़ी नारी क़ी सामाजिक दुर्दशा क़ी व्याख्या करना मेरी लेखनी क़ी शक्ति से परे है | मैं पश्चिमी सभ्यता का विरोधी नहीं हूँ और ना ही पक्षधर हूँ पारंपरिक भारतीय संस्कृति का | पश्चिमी सभ्यता के अन्धानुकरण को बंद कीजिये और नैतिकता एवं बुद्धि विवेक के तराजू में तोलकर उन विचरों को अपनाइए जो अनुकरणीय हैं | हम आध्यात्म एवं संस्कृति में पश्चिमी सभ्यता से बहुत आगे हैं| आधुनिक बनने क़ी होड़ में इस पावन संस्कृति का गला घोंटने क़ी कोई जरुरत नहीं | आज जरुरत है समय के उद्घोष को अंतर्मन से सुनने क़ी और वर्तमान परिस्थितियों में औचित्यहीन हो चुकी परम्परों के खिलाफ एक वैचारिक क्रांति लाने क़ी, जिसका उद्घोष किसी मंच से नहीं समाज क़ी आणविक इकाई परिवार से होना आवश्यक है |


वास्तव में अब हमें भौतिकता के वशीभूत इस समाज में नैतिक मूल्यों पर आधारित शिक्षा पद्यति का बीजारोपण कर, अपनी गौरवशाली शंस्कृतिक धरोहर को संजोते हुए भारतवर्ष में इस उक्ति को चरितार्थ करना होगा - "यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता " |


गौरव पन्त
२ नवम्बर,२०१०

Saturday, June 19, 2010

नयनों में कैसा है मंजर....

२६ दिसम्बर,२००४ मानव इतिहास में एक काले दिन के रूप में हमेशा याद किया जाता रहेगा...इस दिन सुनामी ने धरती के हरे-भरे आँचल में मानव के रक्त से होली खेली थी...उस दर्दनाक द्रश्य का वर्णन मेरी लेखनी की शक्ति से बाहर है...ज्वार तो समुद्र में उठा था,पर दर्द मेरे मन में भी उमड़ पड़ा...उसी दर्द ने लेखनी के माध्यम से कोरे कागज़ में कुछ शब्द लिख दिए...

यह कविता नहीं ,वेदना है दिल की.. श्रधांजलि है सुनामी पीड़ितों को..विनय है प्रकृति से....हे प्रकृति! ऐसी चंचलता दिखा...बेटा तो गलती कर सकता है, पर तू तो माँ है...करुना और दया की जीवंत मूर्ति... अगर तू अपने बेटे मानव को माफ़ नहीं करेगी तो कहाँ जायेगा तेरी गोद में खेलने वाला मानव...कहाँ...?अब कभी खंजर(समुद्र ) लिए अपने बेटे मानव की ओर दौड़ना..उसकी सभी गलतियों को माफ़ कर देना...

नयनों
में कैसा है मंजर ,
कुदरत के हाथों में खंजर|

कंपति कम्पित, धरा डोलती,
या जीवन को विष में घोलती ;
प्रकृति कहूँ या सर्प कहूँ,
जो काल के मुहं में ग्रास छोडती;
नयी-नयी आशायें सजोयें,
आँखों ने देखा सूनापन;
चीखता हुआ है हर मंजर,
कुदरत आँचल हाथों में खंजर|


सागर ने अठखेली खेली,
या फिर खून की होली खेली;
धरती के हरियाले आँचल,
पर इसने लाली क्यों बिखेरी;
प्यास बुझाता उसे तिशनगी,
अर्ध लक्ष की वीरानापन;
आंसू ही मानव के अंतर,
कुदरत के हाथों में खंजर|


गुलशन सहरा हुआ निमिख में,
बिस्मिल मानवता जागी पल में,
जिनका मरहूमों से नाता,
सांत्वना मिली आज जगत से;
टूटी छोड़ी, सिन्दूर पुछा,
या फिर आँचल में सूनापन;
देखा अश्क भरी आँखों से,
कुदरत के हाथों में खंजर|

शोखियाँ दिखाए ना प्रकृति अब,
बुझ सके शम्म-- महफ़िल;
नाताकत ना हो माँ का नाता,
तहरीक--कयास हो ना मन में;
आँखों में अब आंसू हो,
सहरा भी हो गुलशन-गुलशन;
खुशियाँ हों जन जीवन अंतर,
नयनों में हो ऐसा मंजर|
नयनों में हो ऐसा मंजर||



गौरव पन्त
२० जून,२०१०

Thursday, June 17, 2010

सदियाँ बीती , मौसम बीते, सपने -सपने .....

सदियाँ बीती, मौसम बीते, सपने -सपने,
होगा कैसा वह पल , होंगे गैर भी अपने,
आह कब तक इन्तजार है इन्तजार बस,
आह कब तक रुदन करें मिलकर सब|

दूर उठ रहा कहीं धुआं मानवता का,
जाग उठो तुम ,आज बचा लो जीवन जन का,
खुद से पिटते - पिटते देखो शिथिल हो गयी,
हर आँगन की ख़ुशी जाने कहाँ खो गयी|

सपने प्यार वफ़ा के देखो बिखर रहे हैं,
कुछ खुश हैं तो बिलख रहे हैं,
इक पूरब, इक पश्चिम, कुछ उत्तर-दक्षिण,
यूँ अजब अजूबे दुनियां के बिखर रहे हैं|

छोड़ इक राह को तो हर राह अकेले,
चलता सहता हर दुःख और हर आह अकेले,
इक राह साथ चलते हैं मनुज इस धरती पर,
दर्द विनाश और मानवता की राख है जिसपर|

अंधकार है तो प्रकाश की किरण जलाकर,
हाथ- हाथ दे साथ- साथ चल कदम मिलकर,
गम क्या है सब अपना ही तो किया धरा है,
काफिले सजा प्यार के लिए वसुंधरा है|

आज जाग जीवन जग हित अर्पण कर दे,
ज्योति रहेगी या तम ये निर्णय कर दे,
मेरे जीवन के हर सपने को सच कर दे,
प्यार वफ़ा से जग जीवन ज्योतिर्मय कर दे|
खाली झोली भर दे...
खाली झोली भर दे...


गौरव पन्त
१९ जून,
२०१०

कभी हारो न हिम्मत.........

ढल रहा सूरज नहीं, है एक ज्वाला जिन्दगी,
क्या हुआ कांटे पड़े हैं फूल भी खिलता यहीं,
उसकी तो पहचान इतनी, और शोभा भी यही,
खिलता सदा काँटों में और मिट जाता यहीं|

उठ रही आँधियों में, लौ खोज लेती जिन्दगी,
क्या हुआ की दूर तक, सहरा ही है गुलशन नहीं,
क्या गम है की उफान लेते, सागर में हैं अब कस्तियाँ,
शांत समंदर कुशल तैराक पैदा करता नहीं|


गौरव पन्त
१८ जून,२०१०

इक विनय ईश्वर से......

मेरी हर आवाज मानवता की आवाज बने,
मेरे दिल धड़कन नवयुग का आगाज करे,
चाह नहीं मेरे मन की आवाज मेरी आदेश बने ,
पर इतनी हसरत है दिल की, पदचिह्न मेरे पहचान बने |

वह राह मुझे मंजूर नहीं, जिसपर शूल न हों बिखरे,
उस विजय की चाह नहीं मन में, जो मानवता से दूर करे,
वह शक्ति नहीं बनना चाहूं ,जो निर्बल पर अन्याय करे,
वह फूल बना दो हे भगवन, जो वीरों का सम्मान करे|

सूरज सा चमकना चाहता हूँ ,दीपक न बना देना मुझको,
खुशियाँ बिखराना चाहता हूँ ,काँटा न बना देना मुझको,
पत्थर न बनाना मुझको तुम, पूजा जाऊं ठोकर खाऊं,
दिल की हसरत है हिना बनकर,मैं जीवन में रंग लाऊँ|

हर नयी किरण के साथ मैं, मानवता का अभिषेक करूं,
आश निराश हुए मन में, नवजीवन का संचार करूं,
अश्क चुरा लूँ आँखों से, और विप्पत्ति में ढाल बनू,
यूँ दर्द भरी इस दुनियां से ,खुशियों का व्यापार करूं|

एसे कुछ ख्वाब संजोये आंखें हैं,पर भटक रहा है मन मेरा,
है जूनून भी सांसों में, माया ने है मुझको घेरा,
प्रभो..!, नहीं विश्वाश मुझे,सफल बनोगे इक दिन तुम,
जब ख्वाब दिखाए हैं तुमने, तो राह बताओगे भी तुम|

गौरव पन्त
१७ जून,२०१०