ढल रहा सूरज नहीं, है एक ज्वाला जिन्दगी,
क्या हुआ कांटे पड़े हैं फूल भी खिलता यहीं,
उसकी तो पहचान इतनी, और शोभा भी यही,
खिलता सदा काँटों में और मिट जाता यहीं|
उठ रही आँधियों में, लौ खोज लेती जिन्दगी,
क्या हुआ की दूर तक, सहरा ही है गुलशन नहीं,
क्या गम है की उफान लेते, सागर में हैं अब कस्तियाँ,
शांत समंदर कुशल तैराक पैदा करता नहीं|
गौरव पन्त
१८ जून,२०१०
क्या हुआ कांटे पड़े हैं फूल भी खिलता यहीं,
उसकी तो पहचान इतनी, और शोभा भी यही,
खिलता सदा काँटों में और मिट जाता यहीं|
उठ रही आँधियों में, लौ खोज लेती जिन्दगी,
क्या हुआ की दूर तक, सहरा ही है गुलशन नहीं,
क्या गम है की उफान लेते, सागर में हैं अब कस्तियाँ,
शांत समंदर कुशल तैराक पैदा करता नहीं|
गौरव पन्त
१८ जून,२०१०
hello sir...
ReplyDeletei love ur this poem...
this encourages me a lot...
hope to see ur more poems here..
keep writing...